We News 24 Digital News» रिपोर्टिंग सूत्र / अमित मेहलावत
नई दिल्ली :- बुधवार, 28 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड के बहुचर्चित भूमि घोटाला मामले में आरोपी प्रेम प्रकाश को जमानत देते हुए कहा- 'जमानत नियम है और जेल अपवाद', भले ही मामला मनी लॉन्ड्रिंग का ही क्यों न हो। सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी ने एक बार फिर न्यायिक व्यवस्था में जमानत की महत्ता को स्थापित किया है। सुप्रीम कोर्ट ने आज जो टिप्पणी की है, उसका सबसे पहले जिक्र जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने 1977 में किया था। आज कोर्ट ने उस टिप्पणी को दोहराया है, अब आम आदमी यह जानने को उत्सुक है कि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का क्या मतलब है। प्रभात खबर ने तीन अधिवक्ताओं अधिवक्ता अवनीश रंजन मिश्रा, अधिवक्ता आलोक आनंद और अधिवक्ता शांभवी मुखर्जी से बात की और उसके आधार पर भारतीय न्यायिक व्यवस्था में जमानत की महत्ता पर यह आलेख तैयार किया है।
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जमानत क्या है?
जमानत भारतीय न्यायिक व्यवस्था का एक अनिवार्य हिस्सा है। दुनिया की किसी भी न्यायिक व्यवस्था में जमानत का प्रावधान है और इसकी जरूरत भी महसूस की जाती है। आम भाषा में जमानत का मतलब होता है किसी आरोपी या दोषी को जेल से रिहा करना। न्यायालय किसी अभियुक्त या आरोपी को सशर्त रिहा करता है, जिसमें यह व्यवस्था होती है कि रिहा होने वाला व्यक्ति जब भी आवश्यकता होगी, न्यायालय के समक्ष उपस्थित होगा। वह देश छोड़कर नहीं जाएगा तथा संबंधित मामले की जांच में सहयोग करेगा। न्यायालय जमानत देते समय अभियुक्त से कुछ बांड भी भरवाता है, जिसमें अभियुक्त को न्यायालय में कुछ निश्चित राशि जमा करानी होती है।
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 में जमानत को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन धारा 2 (ए) सीआरपीसी में यह बताया गया है कि कौन सा अपराध जमानतीय है और कौन सा नहीं। हालांकि ऐसे अपराध में भी जमानत देने का प्रावधान है जो गैर जमानतीय है, लेकिन न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है कि वह उस मामले में अपराधी को जमानत देगा या नहीं। भारतीय न्याय संहिता 2023 में भी जमानत के बारे में पूरी जानकारी दी गई है।
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जमानत कितने प्रकार की होती है?
जमानत मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है-
नियमित जमानत: नियमित जमानत उन परिस्थितियों में दी जाती है जब कोई व्यक्ति जेल जाता है और न्यायालय में किसी आपराधिक मामले में सुनवाई चल रही होती है। नियमित जमानत का उल्लेख सीआरपीसी की धारा 439 में किया गया था, जबकि भारतीय दंड संहिता में इसका उल्लेख 482 में है।
अग्रिम जमानत: अग्रिम जमानत तब दी जाती है जब किसी व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर दर्ज होती है और उसे संदेह होता है कि उसे गिरफ्तार किया जाएगा, तो वह जमानत के लिए आवेदन करता है और अगर अदालत को लगता है कि व्यक्ति को जमानत मिलनी चाहिए, तो अदालत उसे जमानत दे देती है। अग्रिम जमानत का उल्लेख सीआरपीसी की धारा 438 में किया गया था, जबकि भारतीय दंड संहिता की धारा 481 में इसका उल्लेख है।
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एक और जमानत है जिसे तीसरे प्रकार की जमानत कहा जा सकता है - वह है डिफ़ॉल्ट जमानत। डिफ़ॉल्ट जमानत तब दी जाती है जब किसी अपराध के लिए गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के बाद निर्धारित अवधि के भीतर आरोप पत्र दाखिल न करने पर जमानत मिल सकती है। उदाहरण के लिए, अगर महिलाओं के खिलाफ कोई अपराध होता है, तो पुलिस को 60 दिनों के भीतर आरोप पत्र दाखिल करना होता है, लेकिन अगर पुलिस 60 दिनों के भीतर आरोप पत्र दाखिल नहीं करती है, तो आरोपी को डिफ़ॉल्ट जमानत मिल सकती है। इसका उल्लेख भारतीय दंड संहिता की धारा 187 में किया गया है।
अपराध कितने प्रकार के होते हैं?
जमानत के दृष्टिकोण से अपराध दो प्रकार के होते हैं- 1. जमानती 2. गैर-जमानती।
जमानती अपराध में व्यक्ति जमानत मांग सकता है, क्योंकि यह उसका अधिकार कहा जाता है, जबकि गैर-जमानती अपराध में जमानत व्यक्ति का अधिकार नहीं होता, यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किसी को जमानत देगा या नहीं।
संज्ञेय और असंज्ञेय अपराध
अपराध की प्रकृति के अनुसार इसे संज्ञेय और असंज्ञेय अपराधों की श्रेणी में रखा जाता है। संज्ञेय अपराध वे अपराध होते हैं, जिनमें गिरफ्तारी के लिए वारंट की आवश्यकता नहीं होती। वहीं असंज्ञेय अपराध में वारंट के बिना गिरफ्तारी नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए महिलाओं के खिलाफ किया गया कोई भी अपराध संज्ञेय होता है, जबकि मानहानि, भावनाएं भड़काना और धोखाधड़ी असंज्ञेय अपराधों की श्रेणी में आते हैं।
विचाराधीन कैदियों को बिना वजह जेल में नहीं रखना चाहिए
सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी पर अधिवक्ता अवनीश रंजन मिश्रा का कहना है कि जमानत को लेकर आज सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी कानूनी सामन्ड के सिद्धांत से ली गई है। यह टिप्पणी विचाराधीन कैदियों के लिए है और इसका उद्देश्य यह है कि किसी भी विचाराधीन कैदी को बिना वजह जेल में नहीं रखना चाहिए। यह संभव है कि किसी मामले की सुनवाई सालों तक चले और उसके बाद अदालत आरोपी को बरी कर दे। उस स्थिति में कैदी के साथ अन्याय होगा क्योंकि संभव है कि उसे एक या दो साल की सजा हुई होगी और वह पहले ही सुनवाई के दौरान जेल में अधिक समय बिता चुका होगा। इसलिए किसी के साथ अन्याय न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए जमानत के प्रावधान को कैदियों का अधिकार माना गया है।
अधिवक्ता आलोक आनंद का कहना है कि जमानत पर टिप्पणी करके सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सिद्धांत को स्थापित किया है। संविधान के अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
जमानत कितने प्रकार की होती है?
जमानत मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है, नियमित जमानत और अग्रिम जमानत। अग्रिम जमानत कब दी जाती है? अग्रिम जमानत तब दी जाती है जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया गया हो। उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई हो और उसे संदेह हो कि उसे गिरफ्तार किया जा सकता है।
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