मोल इन द पीएमओ,प्रधानमंत्री राजीव गांधी कार्यलय के चर्चित जासूसी कांड की पूरी कहानी - We News 24 Digital

Breaking

WE NEWS 24-वी न्यूज 24 , हर खबर की पोल है खोलते

 


Post Top Ad


 

Post Top Ad

Responsive Ads Here

गुरुवार, 14 नवंबर 2024

मोल इन द पीएमओ,प्रधानमंत्री राजीव गांधी कार्यलय के चर्चित जासूसी कांड की पूरी कहानी



मोल इन द पीएमओ,प्रधानमंत्री राजीव गांधी कार्यलय के चर्चित जासूसी कांड की पूरी कहानी



वी न्यूज 24 फॉलो करें और रहे हर खबर से अपडेट


We News 24 » रिपोर्टिंग सूत्र /  दीपक कुमार 



नई दिल्ली:-  जनवरी 1985 में "मोल इन द पीएमओ" [ पीएमओ में भेदिया ] स्कैंडल भारतीय राजनीति और राजनयिक संबंधों के लिए एक बड़ा झटका था। इस मामले में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के कुछ महत्वपूर्ण अधिकारियों और कर्मचारियों पर विदेशी एजेंटों को गोपनीय जानकारी देने का आरोप लगा था। इस मामले ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार के लिए संकट पैदा किया और देश की सुरक्षा और खुफिया प्रणाली पर सवाल खड़े किए।


स्कैंडल का विवरण

इस जासूसी प्रकरण का केंद्र प्रधानमंत्री राजीव गांधी के प्रधान सचिव पीसी एलेक्ज़ेंडर का कार्यालय था। इसमें शामिल लोगों में पीसी एलेक्ज़ेंडर के निजी सचिव एनटी खेर, पीए मल्होत्रा, और उनके कार्यालय का एक चपरासी भी था। इन पर आरोप था कि वे एक भारतीय व्यापारी कूमार नारायण के माध्यम से विदेशी एजेंटों को गुप्त सरकारी दस्तावेज़ उपलब्ध करा रहे थे।



ये भी पढ़े-दिल्ली NCR वायु प्रदूषण में किसकी नाकामी, केंद्र और राज्य सरकारों पर क्यों उठ रहे हैं सवाल ?


मोल इन द पीएमओ,प्रधानमंत्री राजीव गांधी कार्यलय के चर्चित जासूसी कांड की पूरी कहानी

गिरफ्तारी और जांच

  • 16-17 जनवरी की रात को इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के काउंटर इंटेलिजेंस विभाग ने सबसे पहले एनटी खेर को गिरफ़्तार किया। उसके बाद पीए मल्होत्रा और पीएमओ के एक चपरासी को भी हिरासत में लिया गया।
  • इनकी गिरफ्तारी के बाद यह सामने आया कि ये लोग प्रधानमंत्री कार्यालय से संबंधित संवेदनशील दस्तावेज़ विदेशी एजेंटों तक पहुंचा रहे थे।
  • इस मामले की गंभीरता को देखते हुए राजीव गांधी के प्रधान सचिव पीसी एलेक्ज़ेंडर ने इस्तीफा दे दिया, हालांकि उन पर सीधे तौर पर कोई आरोप नहीं था।


हमारे twitter Page को Like करे

हमारे twitter Page को Like करे

हमारे WhatsApp Chenal को Join करे

हमारे WhatsApp Chenal को Join करे

हमारे Facebook Page को Likeकरे

हमारे Facebook Page को Likeकरे

ये भी पढ़े-दिल्ली एनसीआर में वायुप्रदुषण से बीमार पड़ने लगे लोग ,फेफड़ों में जा रही जहरीली हवा


कूटनीतिक प्रतिक्रियाएं

इस स्कैंडल के चलते भारत और अन्य देशों के बीच संबंधों में तनाव आ गया।

  • फ्रांस: भारत के अनुरोध पर फ्रांस ने अपने राजदूत को वापस बुला लिया, जिससे दोनों देशों के संबंधों में अस्थायी खटास आई।
  • पूर्वी यूरोप के देश: चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड, और पूर्वी जर्मनी के दिल्ली स्थित दूतावासों से कई राजनयिकों को निष्कासित कर दिया गया।

मीडिया और सार्वजनिक प्रतिक्रिया

भारतीय मीडिया ने इस मामले को "मोल इन द पीएमओ स्कैंडल" का नाम दिया और इसे व्यापक रूप से रिपोर्ट किया। यह मामला इसलिए और भी गंभीर हो गया था क्योंकि यह सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से संबंधित था, जो कि देश की सबसे सुरक्षित जगह मानी जाती है। जनता के बीच सुरक्षा व्यवस्था, सरकारी कार्यालयों की निगरानी, और राजनयिक संबंधों पर सवाल उठने लगे।



ये भी पढ़े-राजधानी दिल्ली और एनसीआर को हर साल वायु प्रदूषण की चुनौतियों का सामना क्यों करना पड़ता है?


स्टेनोग्राफर और निजी सचिवों के पास सूचनाओं का अंबार

कूमार नारायण एक महत्वपूर्ण, लेकिन विवादास्पद, भारतीय व्यक्ति थे, जिनका नाम 1985 के "मोल इन द पीएमओ" जासूसी स्कैंडल में आया था। उनका जन्म 1925 में कोयंबटूर में हुआ और 1949 में वे दिल्ली आए, जहां उन्होंने विदेश मंत्रालय में एक स्टेनोग्राफर के रूप में अपना करियर शुरू किया। नारायण ने अपने करियर में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया और बाद में इंजीनियरिंग उपकरण बनाने वाली कंपनी एसएमएल मानेकलाल में काम करने लगे।

कूमार नारायण और उनके करियर का बदलता रुख

कल्लोल भट्टाचार्जी की किताब "अ सिंगुलर स्पाई: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ कूमार नारायण" में कूमार नारायण के जीवन की अनकही कहानियों का उल्लेख किया गया है। भट्टाचार्जी बताते हैं कि लाइसेंस-परमिट राज के समय में, स्टेनोग्राफरों की विभिन्न मंत्रालयों में विशेष पहुंच थी और वे गोपनीय सूचनाओं के संपर्क में रहते थे। नारायण ने इस स्थिति को समझा और महसूस किया कि स्टेनोग्राफर सिर्फ टाइपिस्ट नहीं होते, बल्कि उनके पास ऐसी सूचनाएं होती हैं जिनका इस्तेमाल लाभ कमाने के लिए किया जा सकता है।

जासूसी की दुनिया में प्रवेश

कूमार नारायण ने इसी समझ का लाभ उठाते हुए गोपनीय सूचनाओं का सौदा करने का रास्ता अपनाया। वह मंत्रालयों में चल रही गतिविधियों और उच्चाधिकारियों के बयानों से जुड़े महत्वपूर्ण दस्तावेजों और सूचनाओं तक पहुंच सकते थे। इसी दौरान उनका संपर्क विभिन्न विदेशी एजेंटों से हुआ, और उन्होंने इस जानकारी को बेचने का माध्यम तलाशना शुरू किया। उन्होंने गोपनीय दस्तावेज़ों को उन तक पहुंचाने के लिए पीएमओ के अधिकारियों का एक नेटवर्क स्थापित किया, जिसमें एनटी खेर, पीए मल्होत्रा, और पीएमओ का एक चपरासी शामिल था।

लाइसेंस-परमिट राज में सूचना का मूल्य

लाइसेंस-परमिट राज के दौरान भारत में उद्योग, व्यापार, और सरकारी नीतियों पर कड़ा नियंत्रण था। सरकारी अफसर और स्टेनोग्राफर जैसे अधिकारी जो नेपथ्य में कार्य करते थे, वे महत्वपूर्ण सूचनाओं तक पहुंच रखते थे। नारायण ने यह समझ लिया था कि गोपनीय जानकारी की विदेशों में बहुत कीमत हो सकती है, खासकर उन देशों के लिए जो भारतीय नीतियों और रणनीतियों पर नजर बनाए रखना चाहते थे।

नारायण की विरासत और क़ानूनी परिणाम

इस स्कैंडल के उजागर होने के बाद कूमार नारायण की विरासत एक विवादित छवि के रूप में दर्ज हुई। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि इस मामले में उन पर क्या क़ानूनी कार्यवाही हुई, लेकिन उनकी भूमिका ने भारत में सुरक्षा तंत्र की खामियों को उजागर किया। उनके इस जासूसी नेटवर्क के कारण भारत सरकार को विदेशी दूतावासों के साथ अपने संबंधों में तनाव का सामना करना पड़ा और सुरक्षा की दृष्टि से कई बदलाव किए गए।

कल्लोल भट्टाचार्जी की किताब में नारायण के बारे में यह बताया गया है कि कैसे उन्होंने स्टेनोग्राफर की भूमिका का इस्तेमाल कर गोपनीयता का उल्लंघन किया और अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इसे एक व्यापार बना लिया।


कुमार नारायण की हर महत्वपूर्ण मंत्रालय में मित्रता थी

कूमार नारायण का जीवन और करियर एक साधारण सरकारी कर्मचारी से लेकर एक प्रभावशाली और विवादास्पद जासूस बनने की कहानी है। 1959 में सरकारी नौकरी छोड़ने के बाद, उन्होंने न केवल अपने नेटवर्क का विस्तार किया, बल्कि सरकारी महकमों में छोटे पदों पर कार्यरत लोगों के एक गुप्त नेटवर्क का निर्माण कर लिया, जो उनके लिए गोपनीय जानकारी जुटाने में सहायक था। इस नेटवर्क के जरिए कूमार ने प्रधानमंत्री कार्यालय, राष्ट्रपति कार्यालय और अन्य महत्वपूर्ण मंत्रालयों में अपने संपर्क बना लिए थे, जो उनकी महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप सूचनाएं प्रदान करते थे।

विदेशी दूतावासों से संपर्क और गोपनीय सूचनाओं का आदान-प्रदान

कूमार नारायण ने छह यूरोपीय देशों के दूतावासों — फ्रांस, पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, सोवियत संघ, और पोलैंड — से संपर्क स्थापित कर लिया था। उन्होंने इन दूतावासों तक भारतीय सरकार के संवेदनशील और गोपनीय दस्तावेज़ पहुंचाना शुरू कर दिया था। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, 28 जनवरी 1985 के अंक में यह तक लिखा गया कि कूमार को विदेश में गोपनीय सूचनाएं एकत्र करने की ट्रेनिंग दी गई थी, जिससे उनके विदेशी एजेंटों से गहरे संबंध और भी स्पष्ट हो गए थे।

कॉरपोरेट संपर्क अधिकारी और बढ़ती संपत्ति

1985 तक भारत में करीब 2,000 लोग कॉरपोरेट कंपनियों के लिए संपर्क अधिकारी के तौर पर कार्य कर रहे थे, जिनमें कूमार नारायण भी शामिल थे। वह इस भूमिका का उपयोग अपने संपर्कों को और मजबूत करने के लिए करते थे। उनके इन गहरे संबंधों का परिणाम यह था कि वे न केवल वित्तीय रूप से समृद्ध हो गए, बल्कि उन्होंने कई संपत्तियाँ भी खरीदीं। अपने निकटतम लोगों को महंगे उपहार देना उनके संबंधों की रणनीति का हिस्सा था, जो उनके प्रभाव को और बढ़ाने में मदद करता था।

प्रधानमंत्री कार्यालय और व्यक्तिगत संबंध

कल्लोल भट्टाचार्जी की पुस्तक के अनुसार, प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यरत पी. गोपालन कूमार नारायण को पिता के समान मानते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि कूमार केवल पेशेवर ही नहीं, बल्कि व्यक्तिगत संबंधों को भी अपने हितों के लिए इस्तेमाल करते थे। पासपोर्ट कार्यालय में जमा दस्तावेज़ों में उन्होंने यहां तक लिखा था कि उनकी मृत्यु होने पर इसकी सूचना कूमार नारायण को दी जाए, जो उनके संबंधों की गहराई को दर्शाता है।

जाँच और गिरफ्तारी के बाद

1985 में "मोल इन द पीएमओ" स्कैंडल के बाद जब कूमार नारायण और उनके नेटवर्क का पर्दाफाश हुआ, तो यह सामने आया कि कैसे उन्होंने अपने गहरे संबंधों और विभिन्न मंत्रालयों तक अपनी पहुंच का दुरुपयोग किया। इस मामले में उनकी गिरफ़्तारी और जांच ने भारतीय सुरक्षा प्रणाली में बड़ी खामियां उजागर कीं। यह प्रकरण भारतीय खुफिया एजेंसियों के लिए एक चेतावनी था और इससे सीख लेकर सुरक्षा तंत्र में कई सुधार किए गए।

कूमार नारायण की यह कहानी यह दिखाती है कि कैसे एक साधारण व्यक्ति ने अपनी सूझबूझ, संपर्कों और महत्वाकांक्षाओं के बल पर खुद को एक प्रमुख जासूस में बदल दिया और भारतीय राजनीति में एक ऐतिहासिक जासूसी कांड का कारण बना।



लीक का पहला संकेत श्रीलंका के साथ बैठक में दिखा


प्रधानमंत्री कार्यालय से गोपनीय सूचनाएं लीक होने का खुलासा तब हुआ, जब दिल्ली में भारत और श्रीलंका के अधिकारियों की एक महत्वपूर्ण बैठक के दौरान श्रीलंकाई अधिकारियों ने भारत के लिए एक शर्मनाक स्थिति उत्पन्न कर दी। उन्होंने भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) का एक टॉप सीक्रेट दस्तावेज़ भारतीय अधिकारियों के सामने रखा। इस दस्तावेज़ में भारत की श्रीलंका के प्रति नीतियों और दृष्टिकोण का ब्योरा था, जिसे श्रीलंकाई अधिकारियों के हाथ में देखकर भारतीय अधिकारी स्तब्ध रह गए।

दस्तावेज़ का महत्व और लीक की गंभीरता

रॉ द्वारा तैयार यह गोपनीय दस्तावेज़ केवल उच्च स्तर के अधिकारियों के लिए था और इसकी सिर्फ तीन प्रतियाँ बनाई गई थीं — दो रॉ के वरिष्ठ अधिकारियों के पास और एक प्रधानमंत्री कार्यालय के पास। यह एक ऐसा दस्तावेज़ था, जिसे बेहद गोपनीय रखा गया था और इसका लीक होना भारत के लिए न केवल सुरक्षा बल्कि प्रतिष्ठा के लिहाज से भी गंभीर मसला था।

जांच और नारायण नेटवर्क की भूमिका

जैसे ही इस लीक का पता चला, भारतीय खुफिया एजेंसियां सक्रिय हो गईं और उन्होंने यह पता लगाने की कोशिश की कि यह दस्तावेज़ कैसे और किस माध्यम से श्रीलंका तक पहुंचा। बाद में जांच के दौरान पता चला कि एक फ्रांसीसी अधिकारी ने कूमार नारायण के जासूसी नेटवर्क का उपयोग करके इस दस्तावेज़ को हासिल किया और इसे श्रीलंका को सौंप दिया।

नारायण नेटवर्क का जाल

कूमार नारायण का नेटवर्क यूरोपीय दूतावासों और विदेशी एजेंटों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ था, जिसमें फ्रांस, पूर्वी जर्मनी, और अन्य देशों के दूतावासों के अधिकारी भी शामिल थे। नारायण ने इस नेटवर्क का इस्तेमाल कर प्रधानमंत्री कार्यालय और अन्य मंत्रालयों से गोपनीय दस्तावेज़ प्राप्त किए और उन्हें विदेशी एजेंटों तक पहुंचाया। फ्रांसीसी अधिकारी के माध्यम से श्रीलंका तक पहुंचाए गए इस दस्तावेज़ ने इस नेटवर्क की व्यापकता को उजागर कर दिया और भारतीय सुरक्षा तंत्र की कमजोरियों को सामने लाया।

भारतीय अधिकारियों के लिए सबक

यह प्रकरण भारतीय खुफिया तंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण सबक था, जिसने यह दिखाया कि कैसे उच्च स्तर की सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगाई जा सकती है। इस घटना के बाद भारत में सुरक्षा प्रक्रियाओं को और कड़ा किया गया और ऐसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कठोर कदम उठाए गए।

विनोद शर्मा और जीके सिंह ने द वीक में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में इस घटना को भारतीय सुरक्षा तंत्र के लिए एक बड़ी विफलता बताया। उन्होंने इस लीक को एक ऐसा प्रकरण कहा, जिसने भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मसार कर दिया और खुफिया तंत्र की कमियों को उजागर किया।



संयोगवश कुमार नारायण पर संदेह हुआ


कूमार नारायण का फ्रांसीसी खुफिया एजेंसी डीजीएसई (Direction Générale de la Security Extérieure) के लिए काम करना और भारत में फ्रांसीसी हितों की सुरक्षा के लिए जासूसी करना भारतीय रक्षा और खुफिया तंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हुआ। नारायण को फ्रांसीसी एजेंसी डीजीएसई द्वारा विशेष रूप से भारत में फ्रांसीसी कॉरपोरेट और रक्षा हितों के लिए जानकारी इकट्ठा करने का काम सौंपा गया था।

डीजीएसई के साथ नारायण का जुड़ाव और ‘ऑपरेशन निकोबार’

कल्लोल भट्टाचार्जी के अनुसार, कूमार नारायण 1970 के दशक के अंत से लेकर 1980 के दशक की शुरुआत तक डीजीएसई के लिए काम कर रहे थे। उनका फ्रांस के खुफिया नेटवर्क से संपर्क एंलेक्ज़ांद्रे द मैरेंचे के कार्यकाल में स्थापित हुआ था, और 1981-82 के दौरान जब पाएरे मारियो डीजीएसई के प्रमुख बने, तब यह संबंध और मजबूत हो गया।

इस समयावधि में, भारत में रक्षा क्षेत्र धीरे-धीरे खुल रहा था, और फ्रांस अपने रक्षा उद्योग के लिए भारतीय बाजार में जगह बनाने के प्रयास में था। डीजीएसई का मिशन भारत के रक्षा मंत्रालय में सेंध लगाना और फ्रांसीसी हितों को बढ़ावा देना था। इस पूरे अभियान को ‘ऑपरेशन निकोबार’ नाम दिया गया था, जिसका उद्देश्य भारतीय रक्षा खरीद प्रक्रिया में फ्रांसीसी प्रभाव बढ़ाना था।

मिराज 2000 विमानों की खरीद और संभावित प्रभाव

1982 में, फ्रांस को भारत को 46 मिराज 2000-एच और 13 मिराज 2000-टीएच युद्धक विमान सप्लाई करने का एक बड़ा ठेका मिला था, जिसमें 110 और विमानों की संभावित खरीद का विकल्प भी शामिल था। इस सौदे के संदर्भ में फ्रांसीसी खुफिया एजेंसी की सक्रियता और भारत में अपनी पकड़ मजबूत करने के प्रयासों ने इसे जासूसी नेटवर्क का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बना दिया। हालाँकि, यह सीधे तौर पर साबित नहीं हो पाया कि इस जासूसी स्कैंडल का फ्रांस को मिराज विमान का ठेका मिलने में कोई भूमिका थी, लेकिन यह स्पष्ट था कि डीजीएसई ने इस सौदे के दौरान अपने हितों की पूर्ति के लिए हर संभव प्रयास किए।

सोवियत संघ की प्रतिक्रिया

फ्रांस से प्रतिस्पर्धा के चलते सोवियत संघ ने भी अपने रक्षा मंत्री दिमित्री उस्तीनोव को भारत भेजा, ताकि वे भारत को फ्रेंच विमानों की जगह सोवियत विमानों की खरीद के लिए मना सकें। हालांकि, सोवियत संघ इस प्रयास में सफल नहीं हो सका, और भारत ने मिराज विमानों के सौदे के लिए फ्रांस को प्राथमिकता दी।

पाएरे मारियो की ‘सफलता’ का दावा

पाएरे मारियो, जो डीजीएसई के प्रमुख थे, ने बाद में इस बात पर गर्व व्यक्त किया कि उनके नेतृत्व में भारत के रक्षा मंत्रालय में सेंध लगाना उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। उनके अनुसार, इसी जासूसी नेटवर्क के माध्यम से फ्रांस मिराज विमान भारत को बेचने में सफल रहा।



खुफिया ब्यूरो के महत्वपूर्ण दस्तावेजों की फोटो स्थिति


कल्लोल भट्टाचार्जी की किताब में वर्णित इस घटना से पता चलता है कि भारत की खुफिया सूचनाओं को किस तरह से लीक किया जा रहा था, और यह मामला दिल्ली के बीचों-बीच बेहद असुरक्षित तरीके से अंजाम दिया जा रहा था।

वेद प्रकाश और फोटो कॉपी की दुकान पर गोपनीय दस्तावेज़

वेद प्रकाश, जो पहले इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) में काम कर चुके थे, एक दिन कनॉट प्लेस की एक फोटो कॉपी की दुकान पर गए, जहां उन्होंने देखा कि कुछ गोपनीय सरकारी दस्तावेज़ कॉपी किए जा रहे थे। फोटो कॉपी करवाने वाले शख्स की पीठ उनकी ओर थी, लेकिन उन्होंने दस्तावेज़ों पर इंटेलिजेंस ब्यूरो और प्रधानमंत्री कार्यालय के निशान देख लिए। इन दस्तावेजों में असम, कश्मीर, पाकिस्तान, और भारी उद्योग जैसे संवेदनशील विषयों से संबंधित रिपोर्टें थीं, जो भारत की आंतरिक और बाहरी चुनौतियों पर आधारित खुफिया जानकारियां थीं।

वेद प्रकाश की सतर्कता और जाँच की शुरुआत

यह नजारा देखकर वेद प्रकाश को शक हुआ, और वे रोज़ इस उम्मीद से दुकान पर जाने लगे कि वे फिर से उस व्यक्ति को देख पाएंगे। आखिरकार, जब उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि वहां गोपनीय दस्तावेज़ों की कॉपी की जा रही है, तो उन्होंने अपने पूर्व बॉस और इंटेलिजेंस ब्यूरो के अतिरिक्त निदेशक जेएन रॉय से इस मामले की जानकारी दी।

जांच की प्रक्रिया और असफलता

जेएन रॉय ने इस मामले को गंभीरता से लिया और कुछ अधिकारियों को फोटो कॉपी की दुकान पर जांच के लिए भेजा। लेकिन वहां से कोई ठोस सबूत नहीं मिला, जिससे इस लीक के पीछे का नेटवर्क सामने नहीं आ सका। यह घटना न केवल सुरक्षा व्यवस्था में खामी को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे एक प्रमुख जगह पर, बिना किसी अतिरिक्त सुरक्षा के, गोपनीय दस्तावेजों की फोटो कॉपी की जा रही थी।

दिल्ली में गोपनीय दस्तावेज़ों की असुरक्षित हैंडलिंग

यह घटना इस बात को रेखांकित करती है कि उस समय सरकारी गोपनीय दस्तावेज़ों की सुरक्षा पर ध्यान नहीं दिया जा रहा था। एक ओर यह देश के लिए गंभीर सुरक्षा चिंता का कारण था, वहीं दूसरी ओर इसने यह भी दिखाया कि खुफिया और सरकारी विभागों में कुछ लोग इन गोपनीय दस्तावेजों को लीक कर रहे थे। इसके कारण ही बाद में कूमार नारायण जैसे व्यक्तियों और उनके नेटवर्क के माध्यम से विदेशी दूतावासों तक महत्वपूर्ण सूचनाएं पहुंचने लगीं, जिससे भारत की खुफिया और रक्षा व्यवस्था पर गहरा असर पड़ा।

इस घटना के खुलासे से खुफिया विभाग को अपनी सुरक्षा प्रणालियों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता महसूस हुई, और भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सुरक्षा उपायों को मजबूत किया गया।


जासूसी रैकेट में शामिल सभी लोगों की पहचान

वेद प्रकाश ने इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के कागज को पढ़ने के बाद अपने संदेह की पुष्टि की और तत्काल अपने पूर्व बॉस जेएन रॉय के पास चले गए। जेएन रॉय ने मामले की गंभीरता को समझते हुए तुरंत जांच का आदेश दिया।

वेद प्रकाश ने यह भी स्पष्ट किया कि दुकान का मालिक निर्दोष है और उसे इस जांच में परेशान नहीं किया जाना चाहिए। इसके बाद आईबी के अधिकारी सादे कपड़ों में फोटो कॉपी की दुकान की निगरानी करने लगे।

भट्टाचार्जी के अनुसार, अगले दिन जब चपरासी दुकान से कागज कॉपी कराकर निकला, तो वेद प्रकाश ने आईबी के एक अधिकारी को उसका पीछा करने का निर्देश दिया।

कुछ दिनों की निगरानी के बाद, यह पता चला कि चपरासी एसएलएम मानेक लाल के हेली रोड वाले दफ्तर से आया था। इस दफ्तर पर भी 24 घंटे की निगरानी शुरू कर दी गई, जिससे अंततः इस रैकेट में शामिल सभी लोगों की पहचान हो गई।


कुमार नारायण के कार्यालय पर छापा

कूमार नारायण, इस सब से अनजान, अपने दफ्तर में पीएमओ में काम कर रहे पी गोपालन का इंतजार कर रहे थे। रात करीब 11 बजे गोपालन एक ब्रीफकेस लेकर कूमार के पास पहुंचे। कूमार ने उनके लिए व्हिस्की की एक बोतल खोली और बातचीत करने लगे। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई।

कल्लोल भट्टाचार्जी लिखते हैं, "दरवाजा खुलते ही इंटेलिजेंस ब्यूरो की टीम कमरे में दाखिल हुई और उसने कूमार की मेज पर सिर्फ डेढ़ घंटे पहले हुई कैबिनेट बैठक के नोट्स पाए। टीम ने कूमार और गोपालन को अपनी जगह पर बैठे रहने के लिए कहा और पूरे दफ्तर की तलाशी लेने लगी। यह तलाशी अगले दिन सुबह तक चली।"

तलाशी के दौरान टीम को बेहतरीन स्कॉच व्हिस्की की 14 बोतलें मिलीं। नारायण और गोपालन को पूछताछ के लिए लाल किले ले जाया गया।

17 जनवरी की रात को तिलक मार्ग पुलिस स्टेशन पर उन आठ लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े दस्तावेजों तक पहुंच बनाकर उन्हें विदेशी लोगों के साथ साझा किया था।



कुमार नारायण तिहाड़ जेल में


गिरफ्तार किए गए लोगों में एक कश्मीरी टीएन खेर थे, जो प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव पीसी एलेक्ज़ेंडर के निजी सचिव थे। एलेक्ज़ेंडर के निजी सचिव के रूप में, खेर की प्रधानमंत्री कार्यालय में व्यापक पहुँच थी।

एक और व्यक्ति, केके मल्होत्रा, को भी गिरफ्तार किया गया, जो गृह मंत्रालय से प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रतिनियुक्ति पर आए थे।

गिरफ्तार किए गए तीसरे व्यक्ति राष्ट्रपति के प्रेस सलाहकार तरलोचन सिंह के वरिष्ठ निजी सहायक एस शंकरण थे। मदुरै के रहने वाले शंकरण पिछले बीस वर्षों से राष्ट्रपति के स्टाफ में थे और प्रेसिडेंशियल एस्टेट में ही रहते थे।

कई दिनों की पूछताछ के बाद, कूमार को तिहाड़ जेल भेज दिया गया। जेल के कठोर माहौल ने कूमार के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाला और वह बीमार रहने लगे। उन्हें डर सताने लगा कि उनकी जेल में हत्या कर दी जाएगी, जिससे वह रात में जागकर चिल्लाने लगे।

तिहाड़ जेल के पूर्व प्रेस अधिकारी सुनील गुप्ता बताते हैं, "कूमार हर समय रोते रहते थे। गिरफ्तार होने के पहले दो महीने के भीतर उनका वजन 20 किलो कम हो गया था। हम लोग उनसे मजाक भी करते थे कि उनका वजन घटना अच्छी बात है। अब वह लंबे समय तक जीवित रहेंगे।"

इस घटना ने राष्ट्रीय सुरक्षा और सरकारी अधिकारियों की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए। मामले में शामिल सभी लोगों पर कठोर कार्रवाई की गई, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जाएगा।



 कूमार नारायण को नौकरी से बर्ख़ास्त 

इन गिरफ्तारियों को बाहरी दुनिया से छिपाकर रखा गया था, लेकिन 'द हिंदू' के जीके रेड्डी को इसकी ख़बर लग गई और उन्होंने सबसे पहले यह ख़बर प्रकाशित की।

4 फरवरी, 1985 को एसएमएल मानेकलाल ने कूमार नारायण को नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया।

कूमार नारायण ने अपने 15 पेजों के इक़बालिया बयान में स्वीकार किया कि इस जासूसी केस में कम-से-कम तीन देश शामिल थे और वह पिछले 25 वर्षों से उन्हें नक़द पैसों के बदले गोपनीय दस्तावेज़ उपलब्ध कराते रहे हैं।

कूमार ने अपने नियोक्ता मानेकलाल के बारे में भी कहा कि उन्होंने भी उसकी दी जानकारियों का लाभ उठाया है।

यह मामला भारतीय खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया। इसमें शामिल विभिन्न उच्च पदस्थ अधिकारियों और उनके सहयोगियों की गिरफ्तारियां यह दर्शाती हैं कि किस तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित गोपनीय जानकारियां लीक हो रही थीं।

इस मामले ने पूरे देश में हलचल मचा दी और सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए कठोर कदम उठाए कि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। कूमार नारायण का इकबालिया बयान और उनके द्वारा उजागर की गई जानकारी ने इस जासूसी रैकेट की गंभीरता को स्पष्ट किया, जिसमें कई देशों की संलिप्तता थी।


प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव पीसी एलेक्ज़ेंडर का इस्तीफ़ा

प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव पीसी एलेक्ज़ेंडर ने पूरे मामले की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। अपनी आत्मकथा 'थ्रू द कॉरिडोर्स ऑफ़ पावर' में उन्होंने लिखा, "18 जनवरी, 1985, प्रधान सचिव के रूप में मेरी सेवाओं का सबसे काला दिन साबित हुआ।"

उन्होंने लिखा, "उस सुबह मुझे यह हिला देने वाली ख़बर बताई गई कि मेरे निजी सचिव और तीन निजी सहयोगियों को मेरे दफ़्तर की गोपनीय जानकारी कुछ व्यापारिक संगठनों को लीक करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है।"

एलेक्ज़ेंडर ने अपनी तुरंत प्रतिक्रिया को याद करते हुए लिखा, "मेरी तुरंत प्रतिक्रिया थी कि मैं इस मामले की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दूँ।"

वे लिखते हैं, "मैं तीन बजे प्रधानमंत्री से मिलने गया। उस समय उनके तीन वरिष्ठ सहयोगी नरसिम्हा राव, वीपी सिंह और एसबी चव्हाण उनके पास बैठे हुए थे। मैंने राजीव गाँधी से कहा कि मैं आपसे अकेले में मिलना चाहता हूँ। जैसे ही वे लोग गए, मैंने सारी बात प्रधानमंत्री को बताई और अपने इस्तीफ़े की जानकारी उन्हें दी।"

इस घटना ने न केवल सरकार और प्रशासन को हिला कर रख दिया, बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय में भी एक गहरी छाप छोड़ी। एलेक्ज़ेंडर के इस्तीफे ने यह स्पष्ट किया कि वे इस गंभीर सुरक्षा उल्लंघन की नैतिक जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार थे, जो उनके कार्यालय के अधिकारियों द्वारा किया गया था। इसने उच्चतम स्तर पर जवाबदेही और नैतिकता की मिसाल कायम की।


कुमार नारायण की मृत्यु

सभी 13 अभियुक्तों के खिलाफ 17 सालों तक मुकदमा चला। अंततः उन्हें गोपनीय सूचनाएं विदेशी एजेंटों को पहुंचाने का दोषी पाया गया। ये सभी सरकारी कर्मचारी थे और उनमें से चार प्रधानमंत्री कार्यालय और रक्षा मंत्रालय में काम कर रहे थे।

सभी दोषियों को 10 वर्ष की जेल की सजा सुनाई गई। हालांकि, फैसले से दो साल पहले, 20 मार्च, 2000 को कूमार नारायण का निधन हो गया।

यह मामला भारतीय न्याय प्रणाली में एक महत्वपूर्ण प्रकरण बना, जिसने सुरक्षा और गुप्त सूचनाओं की संवेदनशीलता को उजागर किया। 17 साल लंबी कानूनी प्रक्रिया के दौरान, यह सुनिश्चित किया गया कि दोषियों को उनके कृत्यों के लिए न्याय का सामना करना पड़े। इस प्रकरण ने सरकारी तंत्र में सुरक्षा उपायों को और भी सख्त बनाने की आवश्यकता पर बल दिया।

इस प्रकरण का महत्व

इस जासूसी मामले ने भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को और सतर्क बना दिया। इस घटना के बाद सरकारी कार्यालयों में खुफिया व्यवस्था और जानकारी की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया। यह मामला भारतीय इतिहास के उन चुनिंदा घटनाओं में से है जिसने सरकारी तंत्र में विदेशी प्रभाव और जासूसी नेटवर्क को उजागर किया।

यह प्रकरण उस समय भारतीय राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने देश की खुफिया और सुरक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता को सामने रखा। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Top Ad

Responsive Ads Here