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शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

कुल्लू का दशहरा है अनोखा उत्सव, यहां नहीं होता रावण दहन, जानिए रघुनाथजी के अयोध्या से कुल्लू आने की कहानी

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We News 24 » रिपोर्टिंग सूत्र / उर्विदत्त गैरोला 




 कुल्लू :- हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा पूरे देश में बेहद खास और अनोखा माना जाता है। इसकी सबसे विशेष बात यह है कि जब पूरे देश में दशहरा उत्सव समाप्त हो जाता है, तब कुल्लू में दशहरे का समारोह शुरू होता है। इस साल कुल्लू दशहरे का 7 दिवसीय समारोह 13 से 19 अक्टूबर, 2024 तक चलेगा। आइए, कुल्लू दशहरे से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें और विशेषताएं जानें।

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कुल्लू दशहरे की विशेषता:

1. भगवान रघुनाथजी का निरीक्षण:

कुल्लू दशहरे की शुरुआत भगवान रघुनाथजी और अन्य देवताओं की जुलूस यात्रा से होती है। भगवान रघुनाथजी एक रथ पर सवार होकर पूरी कुल्लू घाटी का निरीक्षण करते हैं और जनता को दर्शन देते हैं। इस जुलूस में गांव के सभी देवी-देवता भी शामिल होते हैं। यह उत्सव ढालपुर मैदान में संपन्न होता है, जिसे इस मौके पर दुल्हन की तरह सजाया जाता है।

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2. रघुनाथजी के कुल्लू आने की कथा:

सोलहवीं शताब्दी में कुल्लू पर राजा जगत सिंह का शासन था। राजा को पता चला कि दुर्गादत्त नामक एक किसान के पास बेशकीमती मोती हैं। राजा ने दुर्गादत्त को मोती सौंपने का आदेश दिया, लेकिन दुर्गादत्त ने आत्महत्या कर ली और राजा को शाप दिया। इस शाप के कारण राजा का दुर्भाग्य शुरू हो गया। शाप से मुक्ति पाने के लिए राजा ने अयोध्या से रघुनाथ देवता को कुल्लू लाने का निर्णय लिया। राजा के ब्राह्मण ने अयोध्या से रघुनाथजी को चुराकर कुल्लू लाया, और तब से रघुनाथजी कुल्लू राज्य के देवता के रूप में स्थापित हो गए।

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3. रावण दहन नहीं होता:

कुल्लू दशहरे के दौरान न तो रामलीला होती है और न ही रावण, मेघनाद और कुंभकरण के पुतले जलाए जाते हैं। यहां आतिशबाजी जलाना भी मना है। यह दशहरा पूरी तरह से धार्मिक और सांस्कृतिक होता है, जो हिमाचल की देव परंपराओं को जीवित रखता है।

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4. कुल्लू घाटी को देवभूमि क्यों कहते हैं?:

कुल्लू घाटी को देवभूमि कहा जाता है क्योंकि यहां विभिन्न देवताओं की पूजा की जाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, महर्षि जमदग्नि की तीर्थयात्रा के दौरान एक भयंकर तूफान में उनकी टोकरी से देवताओं की मूर्तियां गिर गईं, जो कुल्लू घाटी के विभिन्न स्थानों पर बिखर गईं। तब से इन मूर्तियों की पूजा यहां के लोग भगवान के रूप में करने लगे।

कुल्लू का दशहरा न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर को संजोए हुए है, बल्कि यह उत्सव सामुदायिक एकता और लोक संस्कृति का प्रतीक भी है। कुल्लू दशहरा का अनुभव हर किसी के लिए एक अनोखा और अविस्मरणीय होता है।


Disclaimer: यहां दी गई जानकारी ज्योतिष की मान्यताओं पर आधारित है और केवल जानकारी के लिए दी जा रही है। वी न्यूज 24 इसकी पुष्टि नहीं करता है।




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