We News 24 Digital News» रिपोर्टिंग सूत्र / दीपक कुमार
नई दिल्ली :- कलवार समुदाय एक विशेष जाति है, जो कलवार समुदाय भारत के विभिन्न हिस्सों में रहने वाला एक जाति समूह है, जिनका इतिहास और सांस्कृतिक परंपराएँ विविध और ऐतिहासिक रूप से समृद्ध हैं। यह समुदाय विशेषकर उत्तर भारत, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में पाया जाता है।
पारंपरिक पेशे: कलवार समुदाय पारंपरिक रूप से व्यापार से जुड़ा रहा है।
सामाजिक स्थिति: इस समुदाय की सामाजिक स्थिति ऐतिहासिक रूप से विविध रही है। कुछ क्षेत्रों में वे उच्च जातियों के साथ बराबरी का दर्जा रखते हैं, जबकि अन्य क्षेत्रों में उन्हें निम्न जातियों के रूप में देखा जाता है।
संस्कृति और परंपरा: कलवार समुदाय के लोग अपनी सांस्कृतिक परंपराओं और रीति-रिवाजों को बनाए रखते हैं, जिनमें विवाह, धार्मिक अनुष्ठान और त्योहार महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इतिहास में योगदान: इस समुदाय ने भारत के सामाजिक और आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। विभिन्न कालखंडों में, उनके व्यापार स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को समर्थन प्रदान किया है।
कलवार जाति का संबंध हैहय वंश से है, और यह दावा किया गया है कि इनका उत्पत्ति चंद्रवंशी क्षत्रिय कुल से हुई है। इतिहास, वेदों और पुराणों के अनुसार, चंद्रवंशी क्षत्रियों का प्रमुख स्थान रहा है, और इनमें कई प्रसिद्ध योद्धा हुए हैं, जैसे कार्तवीर्य अर्जुन, जिन्हें सहस्त्रबाहू के नाम से भी जाना जाता है।
कार्तवीर्य अर्जुन का उल्लेख पुराणों में मिलता है, और इन्हें अपने हजार हाथों और वीरता के लिए जाना जाता है। यह भी कहा जाता है कि यदु वंश, जिसके प्रमुख राजा यदु थे, उसी से आगे चलकर यदुवंशी क्षत्रिय बने, जिनमें भगवान श्रीकृष्ण और बलराम का जन्म हुआ। यह कथा इस बात को प्रमाणित करने की कोशिश करती है कि कलवार जाति का संबंध उसी चंद्रवंशी परंपरा से है। इस तरह की कथाएं और वंशावलियां अक्सर पुराणों और स्थानीय लोककथाओं में पाई जाती हैं,
जातियों के उपविभाजन का प्रमुख कारण सामाजिक, सांस्कृतिक, और भौगोलिक विभाजन रहा है। कलवार वैश्य समुदाय भी विभिन्न उपजातियों और उपवर्गों में विभाजित हो चुका है, जैसे कपूर, खन्ना, मल्होत्रा, मेहरा, सूरी, भाटिया , कोहली, खुराना, अरोरा, अग्रवाल , वर्णवाल, लोहिया आदि, अहलूवालिया, वालिया, बाथम, शिवहरे, माहुरी, शौन्द्रिक, साहा, गुप्ता, महाजन, कलाल, कराल, कर्णवाल, सोमवंशी, सूर्यवंशी, जैस्सार, जायसवाल, व्याहुत, चौधरी, प्रसाद, भगत इत्यादि। यह विभाजन कई बार विभिन्न व्यवसायों, क्षेत्रीय भिन्नताओं, और सांस्कृतिक पहचान के आधार पर हुआ है।
इस विभाजन का एक प्रमुख कारण सामाजिक गतिशीलता और क्षेत्रीय विविधता है। भारत में विवाह की व्यवस्था, व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा, और सांस्कृतिक विविधता के कारण एक ही जाति या समुदाय के लोग अलग-अलग उपजातियों में विभाजित हो गए हैं। उदाहरण के लिए, अग्रवाल समुदाय को विभिन्न उपवर्गों में बांटा गया है, जैसे कि बनिया, व्याहुत, आदि। इसी तरह, कलवार समुदाय में भी विभिन्न उपजातियाँ और उपवर्ग उभरे हैं।
समाज में जाति प्रथा का विकास एक जटिल प्रक्रिया रही है, जो समय के साथ बदलती रही है। आज के समय में, जाति और उपजाति के आधार पर भेदभाव और विभाजन को समाप्त करने के प्रयास किए जा रहे हैं, ताकि सभी समुदायों को समान अवसर मिल सकें।
कलवार हैहय वंश चंद्रवंशी की वंशावली
हैहय वंश और चंद्रवंशी वंश की प्राचीन वंशावली पर आधारित है, जो हरिवंश पुराण और अन्य प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है।
इस विवरण के अनुसार, राजा ययाति के पुत्र यदु से प्रारंभ होकर हैहय वंश की उत्पत्ति होती है। यदु के पांच पुत्र थे, जिनमें सहस्त्रद प्रमुख थे, और सहस्त्रद के पुत्रों में "हैहय" प्रमुख थे। हैहय से ही हैहय वंश की उत्पत्ति मानी जाती है। इसके बाद वंश की परंपरा इस प्रकार चलती है:
- हैहय के पुत्र धर्मनेत्र हुए,
- धर्मनेत्र के पुत्र कार्त,
- कार्त के पुत्र साहंज,
- साहंज के पुत्र महिष्मान, जिन्होंने महिष्मती नगरी की स्थापना की (वर्तमान महेश्वर, मध्य प्रदेश),
- महिष्मान के पुत्र भद्रश्रेन्य, जो वाराणसी के अधिपति थे,
- भद्रश्रेन्य के पुत्र दुर्दम,
- दुर्दम के पुत्र कनक,
- कनक के चार पुत्र थे: कृतौज, कृतवीर्य, कृतवर्मा, और कृताग्नी।
कृतवीर्य के पुत्र अर्जुन (कृतवीर्य अर्जुन) हुए, जो कि महाभारत में प्रसिद्ध हैं। इस वंश को चंद्रवंशी वंश से जोड़ा जाता है, जो चंद्रमा के वंश से उत्पन्न माना जाता है।
महिष्मती नगरी, जिसे महेश्वर कहा जाता है, आज भी मध्य प्रदेश के खरगोन जिले में नर्मदा नदी के किनारे स्थित है और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है।
कार्तवीर्य अर्जुन का नाम सहस्त्रबाहु कैसे पड़ा?
कार्तवीर्य अर्जुन को "सहस्त्रबाहु" नाम इस कारण मिला क्योंकि उन्होंने अपने गुरु दत्तात्रेय की कठोर तपस्या करके हज़ार भुजाओं का वरदान प्राप्त किया था। उनकी यह सहस्त्र भुजाएँ शक्ति, सामर्थ्य और उनके अद्वितीय शौर्य का प्रतीक थीं। इसके कारण ही उन्हें "सहस्त्रबाहु" या "सहस्त्रार्जुन" के नाम से जाना गया। सहस्त्रबाहु ने अपने समय में पृथ्वी के सभी द्वीपों को जीतकर सात द्वीपों के स्वामी होने का गौरव प्राप्त किया और उनकी शक्ति का प्रभाव पूरे विश्व में फैला था।
सहस्रबाहु परशुराम युद्ध
कहते है एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ जमदग्नि ऋषि(जमदग्नि ऋषि परशुराम के पिता) के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा |महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को अपने आश्रम खूब स्वागत सत्कार किये| कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु गाय थी |महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही समय में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया |कामधेनु गाय के अदभुत गुणों से प्रभावित होकर सहस्त्रार्जुन के मन में कामधेनु गाय को पाने की उसकी लालसा जगी|महर्षि जमदग्नि के समक्ष उसने कामधेनु गाय को पाने की अपनी लालसा जाहिर की |सहस्त्रार्जुन को महर्षि ने कामधेनु के विषय में सिर्फ यह कह कर टाल दिया की वह आश्रम के प्रबंधन और ऋषि कुल के जीवन के भरण - पोषण का एकमात्र साधन है | जमदग्नि ऋषि की बात
सुनकर सहस्त्रार्जुन क्रोधित हो उठा, उसे लगा यह राजा का अपमान है तथा प्रजा उसका अपमान कैसे कर सकती है | उसने क्रोध के आवेश में आकार महर्षि जमदग्नि के आश्रम को तहस नहस कर दिया, पूरी तरह से उजाड़ कर रख दिया ऋषि आश्रम को और कामधेनु को जबर्दस्ती अपने साथ ले जाने लगा | कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई और उसको अपने महल खाली हाँथ लौटना पड़ा |जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने सारी बातें बताई | परशुराम ये सुनकर बहुत क्रोधित हुए और सहस्त्राअर्जुन और उसकी पूरी सेना को नाश करने का संकल्प लेकर महिष्मती नगर पहुंचे | वहाँ सहस्त्रार्जुन और परशुराम के बीच घोर युद्ध हुआ |परशुराम ने अपने दिव्य परशु से सहस्त्राबाहू अर्जुन की हजारों भुजाओं को काटते हुए उसका धड़ सर से अलग करके उसका वध कर डाला,सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया | सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला |
माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा | जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो पिता का कटा हुआ सिर और माता को विलाप करते देखा | माता रेणुका ने महर्षि के वियोग में विलाप करते हुए म्रत्यु को प्राप्त हो गईं | माता,पिता के अंतिम संस्कार करने के बाद अपने पिता के वध और माता की मृत्यु से क्रुद्ध परशुराम ने शपथ ली कि वह हैहयवंश का सर्वनाश करते हुए समस्त क्षत्रिय वंशों का संहार कर पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन कर देंगे | पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्त पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया है| कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका |
कलवार जाति की उत्पत्ति और उनके वैश्य वर्ग में परिवर्तन
कलवार जाति की उत्पत्ति और उनके वैश्य वर्ग में परिवर्तन का ऐतिहासिक संदर्भ काफी रोचक है। चन्द्रवंश से संबंधित होने के कारण, ये क्षत्रिय मूल के माने जाते थे। कालांतर में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों के बदलाव के कारण, उन्होंने अपना पारंपरिक क्षत्रिय धर्म और कार्य छोड़कर वैश्य (व्यवसायिक) कार्यों को अपनाना शुरू किया।
मुख्य बिंदु जो इस परिवर्तन को स्पष्ट करते हैं:
राजनीतिक और सैन्य संघर्ष: चन्द्रवंश का हिस्सा रहे हैहय क्षत्रियों को कई संघर्षों का सामना करना पड़ा, जिनमें परशुराम द्वारा किए गए क्षत्रियों के विनाश का प्रयास भी शामिल था। इसके परिणामस्वरूप, जो क्षत्रिय बचे, उन्होंने अपने पारंपरिक कार्य छोड़कर नए व्यवसायिक मार्ग चुने।
व्यवसाय की ओर मुड़ना: जीवन निर्वाह के लिए कलवार जाति ने व्यापार और व्यवसाय को अपनाया। इनमें से अधिकांश ने शराब के कारोबार में कदम रखा, जो उन्हें वैश्य श्रेणी में लाने का एक कारण बना।
नाम और पहचान का परिवर्तन: मेदिनी कोष के अनुसार, "कलवार" शब्द "कल्यापाल" का अपभ्रंश है। कलवार जाति ने व्यापार और तराजू पकड़ने की प्रक्रिया में वैश्य के रूप में पहचान बनाई, और ये शराब और अन्य व्यवसायिक कार्यों में लिप्त हो गए।
विभिन्न वर्गों में विभाजन: समय के साथ, कलवार जाति का विभाजन हुआ और विभिन्न उपजातियों और वर्गों में बंट गए, जैसे कि खत्री,अरोरा,अग्रवाल ,ब्याहुत माहुरी, जायसवाल, इत्यादि।
पौराणिक और ऐतिहासिक संबंध: इस जाति को पौराणिक रूप से चन्द्रवंश से जोड़ा जाता है, जिससे इनकी उत्पत्ति का गौरवशाली इतिहास सामने आता है।
पद्म भूषण डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक अशोक का फूल में लिखा है कि कलवार वैश्य हैहय क्षत्रिय थे, वे सेना के लिए कलेऊ (दोपहर का भोजन) की व्यवस्था करते थे, अत: उन्होंने तराजू उठा लिया और बनिया (वेश्या) बन गए, क्षत्रियों के नाश्ते में नशीला पदार्थ (शराब) भी होता था, अत: वे नशे का भी व्यापार करने लगे।
श्री नारायण चंद्र साहा के जाति विषयक शोध से सिद्ध होता है कि कलवार श्रेष्ठ क्षत्रिय थे। गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण किया था, जिसका प्रतिकार कलवारों ने कालिंदी पार से किया था, जिसके कारण उन्हें कालिंदीपाल भी कहा जाता था, इसी का अपभ्रंश रूप कलवार है।
इस प्रकार, कलवार जाति का वैश्य वर्ग में परिवर्तन मुख्य रूप से परिस्थितियों, व्यवसायिक धारा और समय के साथ हुए सामाजिक परिवर्तन के कारण हुआ।
कलवार समुदाय विभिन्न समूहों में विभाजित है
कलवार जाति के तीन बड़े हिस्से हूए हैं,वे हैं प्रथम पंजाब दिल्ली दूसरा राजपुताना के मारवाड़ी कलवार तीसरा हैं देशवाली कलवार, वह इस समुदाय की विविधता और इसकी सामाजिक संरचना को दर्शाता है। कलवार समुदाय में विभिन्न भौगोलिक और सांस्कृतिक प्रभावों के कारण अलग-अलग उपजातियाँ और समूह विकसित हुए हैं।
उत्तर भारत के कलवार :-अरोरे कलवार, यानि की कपूर, खन्ना, मल्होत्रा, मेहरा, सूरी, भाटिया , कोहली, खुराना, अरोरा, इत्यादि,ये उपनाम विशेष रूप से पंजाब, दिल्ली और उत्तर-पश्चिमी भारत में प्रचलित हैं।
राजपुताना और मारवाड़ी कलवार - जैसे अगरवाल, वर्णवाल, लोहिया आदि.। ये समुदाय मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, और आसपास के क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
देशवाली कलवार - जैसे अहलूवालिया, वालिया, बाथम, शिवहरे, माहुरी, शौन्द्रिक, साहा, गुप्ता, महाजन, कलाल, कराल, कर्णवाल, सोमवंशी, सूर्यवंशी, जैस्सार, जायसवाल, व्याहुत, चौधरी, प्रसाद, भगत आदि. जो भारत के विभिन्न हिस्सों में फैली हुई हैं, जैसे कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र।
हैहय वंशी जगे तो, लाते है भयंकरता,
शिव साज तांडव सा, युद्ध में सजाते है।
शत्रु तन खाल खींचा, मांस को उलीच देत,
गीध, चील, कौए तृप्त , ‘प्रचंड’ हो जाते है।।
रुंड , मुंड, काट-काट , रक्त मज्जा मेदा युक्त,
अरि सब रुंध-रुंध, गार सी मचाते है।।
बढ़ाते शक्ति उर्बर, भावी संतान हेतु,
मातृ-ऋण उऋण कर, मुक्त हो जाते है।।
इस कविता में शौर्य और युद्ध की भयंकरता का सुंदर और सशक्त वर्णन किया गया है। कवि ने समाज के शौर्यवान योद्धाओं की वीरता और युद्ध कौशल का चित्रण किया है, जो शत्रुओं को पराजित करके मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं।
कवि का कहना है कि जब हैहय वंश के योद्धा युद्ध में उतरते हैं, तो उनके आचरण में भयंकरता और शिव की तांडव लीला की छवि दिखाई देती है। वे शत्रुओं के शरीर को चीरते हैं और उनके मांस को उलीच देते हैं, जिससे गिद्ध, चील और कौवे तृप्त हो जाते हैं।
कवि ने युद्ध की भयावहता और शौर्य को प्रस्तुत करते हुए यह भी दर्शाया है कि योद्धा न केवल युद्ध में विजय प्राप्त करते हैं, बल्कि मातृभूमि की शक्ति को बढ़ाते हुए भविष्य की संतान के लिए एक मजबूत आधार भी तैयार करते हैं। वे अपने मातृ-ऋण को चुका कर मुक्ति प्राप्त करते हैं, जिससे उनकी वीरता और शौर्य का महत्व और भी बढ़ जाता है।
कलवार जाती के निम्न वर्ग "
- ब्याहुत
- जयसवाल
- जसवार
- बनौधिया
- खरीदाहा
- बहिष्कृत
- देसवार
- कपूर
- खन्ना
- मल्होत्रा
- मेहरा
- सूरी
- भाटिया
- कोहली
- खुराना
- अरोरा
- अग्रवाल
- वर्णवाल
- लोहिया
- अहलूवालिया
- वालिया
- बाथम
- शिवहरे,
- माहुरी
- शौन्द्रिक
- साहा
- गुप्ता
- महाजन
- कलाल
- कराल
- कर्णवाल
- सोमवंशी
- सूर्यवंशी
- चौधरी
- प्रसाद
- भगत आदि
विभिन्न जातियों और समुदायों के हैं जो भारतीय समाज में पाये जाते हैं। यह सूची जाति व्यवस्था और समाज में विभिन्न सामाजिक समूहों को दर्शाती है। यदि आपके पास इन जातियों से संबंधित कोई विशेष जानकारी या प्रश्न है, तो कृपया बताएं।
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